Friday, 24 May 2019

Forts of Rajasthan

राजस्थान के मशहूर किले और महल

रंग-रंगीला राजस्थान अपनी नायाब खूबसूरती व रजवाडी शान के प्रतीक किलों और महलों के कारण सदा ही पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र रहा है. राजस्थान की पहचान उसके मूल निवासियों की जोशीली व् सरल जीवन शैली और ऐतिहासिक लड़ाइयों से है. राजस्थान को रंगों की धरती भी कहा जाता है. आइए जानें राजस्थान के खूबसूरत किलों और महलों के बारे में.

1 आमेर किला, जयपुर



आमेर जयपुर नगर की सीमा में ही स्थित उपनगर है. आमेर किला लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मानसिंहमिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है. यह मुगल और राजपूत वास्तुकला का समावेश है जिसे बनाने के लिए संगमरमर और लाल पत्थरों का प्रयोग हुआ है. मजबूत प्राचीन और सुंदर महल आमेर किले को राज्य का सबसे खास आकर्षण बनाते हैं. आमेर किले में स्थित माहोठा झील इस जगह की खूबसूरती में चार चाँद लगाती है. >> पढ़ें युनेस्को विश्व धरोहर स्थल: जयपुर का आमेर किला

2 जयगढ़ किला



जयगढ़ किला, राजस्थान की राजधानी जयपुर में अरावली पर्वतमाला में चील का टीला नामक पहाड़ी पर बना है। जयगढ़ किले का निर्माण जयसिंह द्वितीय ने 1726 ई. में आमेर किला एवं महल परिसर की सुरक्षा हेतु करवाया था और इसका नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। जयगढ़ किला जयपुर शहर की समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है। >> पढ़ें जयगढ़ किले का इतिहास

3 नाहरगढ़ किला



नाहरगढ़ किले को जयपुर के राजा सवाई जय सिंह द्वारा बनाया गया था। इस किले का निर्माण कार्य 1734 में पूरा किया गया। नाहरगढ़ किला, अरावली पर्वत श्रृंखला में बना हुआ है। यह भारतीय व् यूरोपीय वास्‍तुकला का सुंदर समामेलन है। नाहरगढ़ से जयपुर शहर का नजारा देखने लायक होता है। दिन और रात दोनों ही समय जयपुर शहर लुभावना और खूबसूरत लगता है। >> पढ़ें: बाघों का निवास – नाहरगढ़ किला

4 सिटी पैलेस



सिटी पैलेस जयपुर का प्रमुख लैंडमार्क और सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों में से एक है। सिटी पैलेस का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने 1729 से 1732 के मध्य कराया था। यह एक राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना, एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचों बीच खड़ा है। इस खूबसूरत परिसर में कई इमारतें, विशाल आंगन और आकर्षक बाग हैं जो इसके राजसी इतिहास की निशानी है। यहाँ की खूबसूरती को देखने के लिए सैलानी दुनिया भर से हजारों की संख्या में सिटी पैलेस में आते हैं। >> पढ़ें:  ख़ूबसूरती की मिसाल : सिटी पैलेस

5 चित्तौड़गढ़ किला



चित्तौड़गढ़ किला एक भव्य और शानदार संरचना है जो चित्तौड़गढ़ के शानदार इतिहास को बताता है। यह चित्तौड़गढ़ का प्रमुख पर्यटन स्थल है। यह किला जमीन से लगभग 500 फुट ऊंचाई वाली एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इस किले में कई सुंदर मंदिरों के साथ रानी पद्मिनी का शानदार महल भी हैं। >> पढ़ें:  चित्तौड़गढ़ किला- जौहर का गढ़

6 मेहरानगढ़ किला



मेहरानगढ़ किला भारत के विशाल और शानदार किला है। मेहरानगढ़ किला एक बुलंद पहाड़ी पर 150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। राव जोधा ने 12 मई 1459 को इस पहाडी पर किले की नीव डाली लेकिन महाराज जसवंत सिंह (1638-78) ने इसे पूरा किया था। इस विशाल किले के भीतर अनेक महल और मंदिर हैं। मेहरानगढ़ किले के दूसरे दरवाजे पर आज भी पिछले युद्धों के दौरान बने तोप के गोलों के निशान मौजूद हैं। >> पढ़ें:  मेहरानगढ़ किला- इस किले की ऊंचाई है कुतुब मीनार से भी ज़्यादा, जहां से दिखता है पाकिस्तान

7 जूनागढ़ का किला



जूनागढ़ का किला, राजस्थान राज्य के बीकानेर शहर में स्थित है। मूल रूप से इस किले का नाम चिंतामणि था जिसे 20वीं शताब्दी में बदलकर जूनागढ़ या पुराना किला रख दिया गया। इसे महाराजा राय सिंह ने बनवाया था। यहाँ राजा की समृद्ध विरासत के साथ उनकी कई हवेलियां और कई मंदिर भी हैं। यहाँ आपको संस्कृत और फारसी में लिखी गई कई पांडुलिपियां भी मिल जाएंगी। >> पढ़ें:  जूनागढ़ किला: तपते रेगिस्तान में सर्दी का माहौल

8 सोनार किला – जैसलमेर



जैसलमेर राजस्थान का सबसे ख़ूबसूरत शहर है और जैसलमेर पर्यटन का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है। जैसलमेर का किला बारहवीं सदी के सुनहरे पत्थरों से बना है। सुबह जब सूर्य की चमकीली किरणें जब इस किले के सुनहरे पत्थरों पर पड़ती हैं तो यह किला पीले रंग से दमक उठता है। सोने सी आभा देने के कारण इसे सोनार किला या गोल्डन फोर्ट भी कहा जाता है। जैसलमेर के प्रमुख ऐतिहासिक स्मारकों में सर्वप्रमुख जैसलमेर किला वास्तु-कला का सुंदर नमूना है, जिसमें बारह सौ घर हैं। >> पढ़ें:  जानिए राजस्थान के सोनार किले की कुछ रहस्यमई बातें

9 हवा महल



जयपुर की पहचान माना जाने वाला हवा महल कई मजिलों पर बना हुआ महल है, जिसका निर्माण सवाई प्रताप सिंह ने 1799 में कराया था और श्री लाल चंद उस्‍ता इसके वास्‍तुकार थे। शाही हवा महल खूबसूरत गुलाबी शहर का शायद सबसे ज्यादा पसंदीदा पर्यटन स्थल है। 1799 में स्थापित यह महल राजस्थान के रंगीन इतिहास और संस्कृति का परिचायक है। >> पढ़ें:  5 मंजिलों वाले इस किले में ना तो है कोई सीढ़ी, ना है कोई कमरा

10 उदयपुर सिटी पैलेस – उदयपुर



सिटी पैलेस की स्थापना 16वीं शताब्दी में आरम्भ हुई। शाही शहर जयपुर में स्थित सिटी पैलेस वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। यह एक भव्य परिसर है। इस महल को बनाने में 22 राजाओं का योगदान रहा है। इस महल की खूबसूरती, संगमरमर की नक्काशी वाली आंतरिक सज्जा, शानदार खंभे, सैलानियों के लिए खास आकर्षण बनाती है। >> पढ़ें:  11 महलों वाले इस पैलेस में चलते है मिट्टी के तेल से पंखे

Tuesday, 21 May 2019

History of Rajasthan

स्रोतहीन|date=दिसम्बर 2011} पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाणकाल से प्रारंभ होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।
अतिप्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान वैसा बीहड़ मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और रंगमहल जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकरकालीबंगा के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं।
इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और सिवि इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर महान को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था। उस समय उत्तरी बीकानेरपर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। महाभारत में उल्लिखित मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुरके एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब 'विराटनगर' कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोकके दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलता है।
भरतपुरधौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उत्तर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोत्तर तृतीय सदी में उत्तरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनर्स्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत्त् और समृद्ध था। अंततः छठी सदी में तोरामण के नेतृत्तव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे। इनमें से मौर्यों के समय में चित्तौड़गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरों के अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य थे।
लगातार होने वाले विदेशी आक्रमणों के कारण यहां एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हो रहा था। रूढ़िवादी हिंदुओं की नजर में इस अपवित्रता को रोकने के लिए कुछ करने की आवश्यकता थी। सन् 647 में हर्ष की मृत्यु के बाद किसी मजबूत केंद्रीय शक्ति के अभाव में स्थानीय स्तर पर ही अनेक तरह की परिस्थितियों से निबटा जाता रहा। इन्हीं मजबूरियों के तहत पनपे नए स्थानीय नेतृत्व में जाति-व्यवस्था और भी कठोर हो गई।

मध्यकाल


राजा रवि वर्मा कृत महाराणा प्रताप
राजस्थान में प्राचीन सभ्यताओं के केन्द्र:
  • कालीबंगा, हनुमानगढ
  • रंगमहल, हनुमानगढ
  • आहड, उदयपुर
  • बालाथल, उदयपुर
  • गणेश्वर, सीकर
  • बागोर [1], भीलवाडा
  • बरोर, अनूपगढ़

भारत की स्वतंत्रता के बाद राजस्थान का एकीकरण

राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रांत है। यह 30 मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतें विलीन हुईं। भरतपुर के जाट शासक ने भी अपनी रियासत के विलय राजस्थान में किया था। राजस्थान शब्द का अर्थ है: 'राजाओं का स्थान' क्योंकि यहां अहीर,गुर्जर, राजपूत, मौर्य, जाट आदि ने पहले राज किया था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता-हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की, तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना और राजपूताना के तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही राजपूताना के देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़ सी मच गयी थी, उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नजरिये से देखें तो राजपूताना के इस भूभाग में कुल 19 देशी रियासतें, 3 ठिकाने व एक केंद्र शासित प्रदेश था।केन्द्र शासित प्रदेश का नाम अजमेर मेरवाडा था जो सीधे केन्द्र यानि अग्रेजों के अधिन था। इनमें एक रियासत अजमेर मेरवाडा प्रांत को छोड़ कर शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा था; इस कारण यह तो सीघे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष 19 रियासतों का विलय होना यानि एकीकरण कर 'राजस्थान' नामक प्रांत बनाया जाना था। सत्ता की होड़ के चलते यह बड़ा ही दूभर लग रहा था क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से खुद अपने राज्यों का शासन चलाते आ रहे हैं, उन्हें इसका दीर्घकालीन अनुभव है, इस कारण उनकी रियासत को 'स्वतंत्र राज्य' का दर्जा दे दिया जाए। करीब एक दशक की ऊहापोह के बीच 18 मार्च 1948 को शुरू हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया कुल सात चरणों में एक नवंबर 1956 को पूरी हुई। इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका।

राजस्थान एकीकरण से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बातें------
      राज. के एकीकरण में कुल 8 वर्ष 7 माह 14 दिन या 3144 दिन लगें।
      भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की 8 वी धारा या 8 वें अनुच्छेद में देशी रियासतों को आत्म निर्णय का अधिकार दिया गया था।
      एकीकरण हेतु 5 जुलाई 1947 कांे रियासते सचिवालय की स्थापना करवाई गयी थी।
      इसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल व सचिव वी पी मेनन थे।
      रियासती सचिव द्वारा रियासतों के सामने स्वतंत्र रहने की निम्न शर्त रखी।
     1. जनसंख्या 10 लाख से अधिक होनी चाहिये।
     2. वार्षिक आय 1 करोड से अधिक होनी चाहिये।
    उपर्युक्त शर्तो को पूरा करने वाली राज. में केवल 4 रियासतें थी।
   जयपुर,  जोधपुर,  उदयपुर, बीकानेर

पहला चरण- 18 मार्च 1948
सबसे पहले अलवर, भरतपुर, धौलपुर, व करौली नामक देशी रियासतों का विलय कर तत्कालीन भारत सरकार ने फरवरी 1948 में अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर 'मत्स्य यूनियन' के नाम से पहला संघ बनाया। यह राजस्थान के निर्माण की दिशा में पहला कदम था। इनमें अलवर व भरतपुर पर आरोप था कि उनके शासक राष्टृविरोधी गतिविधियों में लिप्त थे। इस कारण सबसे पहले उनके राज करने के अधिकार छीन लिए गए व उनकी रियासत का कामकाज देखने के लिए प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी की वजह से राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला संघ बन पाया। यदि प्रशासक न होते और राजकाज का काम पहले की तरह राजा ही देखते तो इनका विलय असंभव था क्योंकि इन राज्यों के राजा विलय का विरोध कर रहे थे। 18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद़घाटन हुआ और धौलपुर के तत्कालीन महाराजा उदयसिंह को इसका राजप्रमुख मनाया गया। इसकी राजधानी अलवर रखी गयी थी। मत्स्य संघ नामक इस नए राज्य का क्षेत्रफल करीब तीस हजार किलोमीटर था, जनसंख्या लगभग 19 लाख और सालाना-आय एक करोड 83 लाख रूपए थी। जब मत्स्य संघ बनाया गया तभी विलय-पत्र में लिख दिया गया कि बाद में इस संघ का 'राजस्थान' में विलय कर दिया जाएगा।
दूसरा चरण 25 मार्च 1948
राजस्थान के एकीकरण का दूसरा चरण पच्चीस मार्च 1948 को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ, किशनगढ और शाहपुरा को मिलाकर बने राजस्थान संघ के बाद पूरा हुआ। राजस्थान संघ में विलय हुई रियासतों में कोटा बड़ी रियासत थी, इस कारण इसके तत्कालीन महाराजा महाराव भीमसिंह को राजप्रमुख बनाया गया। बूंदी के तत्कालीन महाराव बहादुर सिंह राजस्थान संघ के राजप्रमुख भीमसिंह के बड़े भाई थे, इस कारण उन्हें यह बात अखरी कि छोटे भाई की 'राजप्रमुखता' में वे काम कर रहे है। इस ईर्ष्या की परिणति तीसरे चरण के रूप में सामने आयी।
तीसरा चरण 18 अप्रैल 1948
बूंदी के महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बड़े राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बड़े भाई ने काम किया। 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथा चरण तीस मार्च 1949
इससे पहले बने संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर केन्द्रित किया और इसमें सफलता भी हाथ लगी और इन चारों रियासतो का विलय करवाकर तत्कालीन भारत सरकार ने तीस मार्च 1949 को वृहत्तर राजस्थान संघ का निर्माण किया, जिसका उदघाटन भारत सरकार के तत्कालीन रियासती और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। बीकानेर रियासत ने सर्वप्रथम भारत में विलय किया। यही ३० मार्च आज राजस्थान की स्थापना का दिन माना जाता है। इस कारण इस दिन को हर साल राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। हालांकि अभी तक चार देशी रियासतो का विलय होना बाकी था, मगर इस विलय को इतना महत्व नहीं दिया जाता, क्योंकि जो रियासते बची थी वे पहले चरण में ही 'मत्स्य संघ' के नाम से स्वतंत्र भारत में विलय हो चुकी थी। अलवर, भतरपुर, धौलपुर व करौली नामक इन रियासतो पर भारत सरकार का ही आधिपत्य था इस कारण इनके राजस्थान में विलय की तो मात्र औपचारिकता ही होनी थी।
पांचवा चरण 15 मई 1949
पन्द्रह मई 1949 को मत्स्य संध का विलय ग्रेटर राजस्थान में करने की औपचारिकता भी भारत सरकार ने निभा दी। भारत सरकार ने 18 मार्च 1948 को जब मत्स्य संघ बनाया था तभी विलय पत्र में लिख दिया गया था कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा। इस कारण भी यह चरण औपचारिकता मात्र माना गया।
छठा चरण 26 जनवरी 1950
भारत का संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 को सिरोही रियासत का भी विलय ग्रेटर राजस्थान में कर दिया गया। इस विलय को भी औपचारिकता माना जाता है क्योंकि यहां भी भारत सरकार का नियंत्रण पहले से ही था। दरअसल जब राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब सिरोही रियासत के शासक नाबालिग थे। इस कारण सिरोही रियासत का कामकाज दोवागढ की महारानी की अध्यक्षता में एजेंसी कौंसिल ही देख रही थी जिसका गठन भारत की सत्ता हस्तांतरण के लिए किया गया था। सिरोही रियासत के एक हिस्से आबू देलवाडा को लेकर विवाद के कारण इस चरण में आबू देलवाडा तहसील को बंबई और शेष रियासत विलय राजस्थान में किया गया।
सांतवा चरण एक नवंबर 1956
अब तक अलग चल रहे आबू देलवाडा तहसील को राजस्थान के लोग खोना नहीं चाहते थे, क्योंकि इसी तहसील में राजस्थान का कश्मीर कहा जाने वाला आबूपर्वत भी आता था, दूसरे राजस्थानी, बच चुके सिरोही वासियों के रिश्तेदार और कईयों की तो जमीन भी दूसरे राज्य में जा चुकी थी। आंदोलन हो रहे थे, आंदोलन कारियों के जायज कारण को भारत सरकार को मानना पड़ा और आबू देलवाडा तहसील का भी राजस्थान में विलय कर दिया गया। इस चरण में कुछ भाग इधर उधर कर भौगोलिक और सामाजिक त्रुटि भी सुधारी गया। इसके तहत मध्यप्रदेश में शामिल हो चुके सुनेल थापा क्षेत्र को राजस्थान में मिलाया गया और झालावाड जिले के उप जिला सिरनौज को मध्यप्रदेश को दे दिया गया।
इसी के साथ आज से राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। जो राजस्थान के इतिहास का एक अति महत्ती कार्य था १ नवम्बर १९५६ को राजप्रमुख का पद समाप्त कर राज्यपाल का पद सृजित किया गया था। कलाल चोपदार मुस्लिम थे